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दिल को हराकर जीते थे दम्मो भैया ,गीतों में रहेंगे अमर

दिल को हराकर जीते थे दम्मो भैया ,गीतों में रहेंगे अमर

 

-राकेश अचल –

प्रदेश के प्रसिद्ध गीतकार दामोदर शर्मा नहीं रहे। लेकिन न रहने से पहले उन्होंने अपने दिल को हराया और बाजी जीती लेकिन काल से तो वे भी हार गए। दामोदर शर्मा अपनों के बीच दम्मो भैया के रूप में जाने जाते थे। एक-एक शब्द को चबा-चबाकर बोलने वाले दामोदर शर्मा का जाना ग्वालियर की गीर परम्परा का एक और स्तम्भ ढ़हने जैसा है।
बात बहुत पुरानी है। कोई ४५ साल पुरानी hogi। उस समय दमोदर शर्मा को देव पुरस्कार मिला था। उस जमाने में गीतकार के परिचय के साथ पुरस्कार का नाम जोड़ने की परिपाटी थी,क्योंकि तब पुरस्कार जोड़तोड़ से नहीं होड़ में शामिल होकर प्रतिभा के बल पर मिलते थे। मै किशोर था और दम्मो भैया एकदम युवा। सीधे तनकर चलते थे और हमेशा सफारी सूट या पेण्ट शर्त ही पहनते थे। कुर्ता-पायजामा कम ही पहना उन्होंने। ग्वालियर में उस समय उनके गीतों की धूम थी । वे नाक के सुर में लेकिन बेहत पैनी आवाज में गीत पाठ करते तो सन्नाटा छा जाता थ। उन्हें गीत पाठ के दौरान विघ्न बिलकुल पसंद न था।हम नए लड़कों पर उनके गीतों और उनके व्यक्तित्व का आतंक रहता था। लेकिन थे वे बड़े सहज ,आत्मीयता ऐसी की आप कहीं भी आमंत्रित कर लीजिये ,मना नहीं करते थे।
ग्वालियर में सातवें आठवें दशक में गीतकारों का ही बोलवाला थ। आनंद मिश्र,वीरेंद्र मिश्र,मुकुट बिहारी सरोज दामोदर शर्मा,रामप्रकाश अनुरागी से लेकर दर्जनों लोग थे जो गीत साधना कर रहे थे। शर्मा जी उनमने सबसे अलग थे। हमारे आदरणीय प्रोफेसर प्रकाश दीक्षित से उनका अग्रज-अनुज का नाता थ। दोनों में चुहल भी खूब होती थी और तकरार भी। बीते साल जब मेरी उनसे अंतिम मुलाकात हुई तब भी वे दीक्षित जी को झाड़ रहे थे-अबे प्रकाश तू मुझसे दो साल छोटा है और अभी से मारने से घबड़ाता है ! मुझे देख दस साल से दिल की बीमारी से जूझ रहा हूँ । डाक्टरों के कहने के बाद आपरेशन नहीं कराया।
शर्मा जी पेशे से शिक्षक थे ,और सेवानिवृत होते ही होम्योपैथी के चिकित्सक बन गए। घर से ही जनसेवा करने लगे । खुद भी दवा खाते और इष्ट-मित्रों को खिलाते । जो पैसा दे जाता तो ठीक न दे जाये तो भी ठीक।सेवा होती रहना चाहिए। शर्मा जी के गीत लिखने की रफ्तार बेहद सुस्त थी लेकिन उन्होंने जितने भी गीत लिखे वे गीत की किसी भी कसौटी पर कैसे जा सकते है। उनके गीत कुंदन जैसे तपे-तपाये थे। जीवन का हर रंग उनके गीतों में था। प्रेम था,दर्शन था,प्रमाद था लेकिन उच्चश्रृंखलता नहीं थी। दानाओली की एक संकरी गली में रहने वाले दामोदर जी का दिल बहुत विशाल था। वे अपनी पीढ़ी के सम्माननीय गीतकार थे । मै उन्हें ग्वालियर का रमानाथ अवस्थी कहता था तो वे मुझे डपट देते थे।
वे अकेले ऐसे गीतकार थे जो नए गीतकारों की क्लास लिए बिना उन्हें उत्साहित करते थे। छंद पर उनकी पकड़ मजबूत थी और वे इसके आग्रही भी थे की गीत में छंद का अनुशासन न टूटने पाए। उनक समय में गीत को लेकर अनेक प्रयोग हुए किन्तु वे अपने रास्ते चले । उन्होंने न नव गीत लिखे और न किसी को रोका। पिछले दशक में उन्हें एक अन्य पुरस्कार मिला तो वे बहुत खुश थे। वे जो कहते ,खुलकर कहते,सामने कहत। पीठ पीछे किसी की आलोचना करना उनके स्वभाव में नहीं था। मैंने उनसे बहुत सीखा। मेरी तुकबंदी में यदि आप थोड़ा भर अनुशासन पाते हैं तो इसका श्रेय दामोदर जी को ही जाता है।
तम्बाखू के शौकीन दामोदर शर्मा खूब यारबाश थ। उनकी जिनसे घुटी खूब घुटी और जिनसे नहीं बनी तो अंत तक नहीं बनी। शर्मा जी के जाने के साथ ही नयी सड़क की पटिया संस्कृति की आखरी पहचान भी जाती रही। इसी सड़क पर कभी डॉ जगदीश सलिल ,दामोदर शर्मा,प्रकाश दीक्षित,मुकुट बिहारी सरोज ,किशन तलवानी जैसे लोगों की धूम रहती थी अब उसी सड़क पर सन्नाटा पसर रहा है । गीत ,सड़क के साथ ही जीवन से भी दूर होते जा रहे हैं। कविवर दामोदर शर्मा को विनम्र श्रृद्धांजलि। ग्वालियर उनके साहित्यिक योगदान को हर समय रेखांकित करता रहेगा।
@ राकेश अचल

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