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पुण्यतिथि पर विशेष: सिर्फ बोल देने से विस्मृत नहीं हो जाएंगे पंडित नेहरू

पुण्यतिथि पर विशेष: सिर्फ बोल देने से विस्मृत नहीं हो जाएंगे पंडित नेहरू

डॉ मानसी द्विवेदी

आज 27 मई को पं. जवाहरलाल नेहरू की पुण्य तिथि है। उत्सुकतावश समाचारपत्रों के पृष्ठ पलटने पर देश के पहले प्रधानमंत्री, कई दशकों तक  राष्ट्र के सीने को प्राण की तरह स्पन्दित रखने वाले, कल्पना  और लेखनी के धनी, बच्चों के संसार में चाचा जैसे अनुरागसिक्त सम्बोधन को सहज ढंग से अर्जित करने वाले नेहरू को देश की व्यापक स्मृति से लगभग
विलुप्त पाकर एक विचित्र-सा खिन्नता-बोध हो रहा है ।
 हमने अब तक ऐसी कोई परिभाषा तैयार नहीं की है जिसे कसौटी मानकर यह तय किया जा सके कि किसको महापुरुषों की श्रेणी में रखा जाये
 और किसके लिए द्वार पर “अन्दर आना मना है” लिखकर छुट्टी पायी जाये । आसपास की दुनिया को देखने-सुनने के बाद और “भारत : एक खोज” की कलकलनिनादिनी विचारधारा में गोते लगाने पर यह अनुभूति शिद्दत से होती है कि नेहरू अपने व्यापक मूल्यांकन में संकीर्णतावादियों के अलावा दूसरों को आसानी से छुट्टी नहीं देने वाले । लम्बी दासता से टूटे, जलियाँवाला बाग़ में गिरे सैकड़ों शवों की स्मृति से थरथराते, विभाजन की यातना के आँसुओं में सराबोर, साम्प्रदायिक दंगों की विभीषिका से बाहर आने की कोशिश करते तेंतीस करोड़ के हिन्दुस्तानी समाज को अपने पैरों पर पूरी आत्मनिर्भरता से खड़ा करना क्या कोई साधारण काम था ?
 क्या अमन-चैन का सपना देखना गुनाह था ? क्या पंचशील के जरिये समान सोच के कुछ देशों को विचार और व्यवहार के एक मज़बूत मंच पर लाने का प्रयास हास्यास्पद था ? क्या “आराम हराम है” की गुहार लगाकर संघर्षशील देशवासियों को कर्म का अग्निपथ दिखाना एक बचकाना निर्णय था ? क्या ऊसर-बंजर खेतों, बनती-बिगड़ती पगडंडियों, लड़खड़ाकर चलती बैलगाड़ियों, क़र्ज़ों, कुरीतियों, अंधविश्वासों, निरक्षरता, ग़रीबी और भुखमरी से जूझ रहे देश को पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से  आगे बढ़ाने का महाकार्य हाथ में लेना यज्ञकुण्ड में केवल अपने हाथ जलाना भर था ? ये सवाल सिर्फ़ सवाल नहीं, ख़ुद में एक मुकम्मल जवाब भी हैं जिन्हें जानकारी की सतही परतें कभी भी समझ नहीं पायेंगी ।
यह देश कभी भी कृतघ्न नहीं रहा है । अगर कोई हर तरह का राजसी वैभव छोड़कर बरसों तक देश की आज़ादी की ख़ातिर जेल की हवा खाकर ख़ुद को गौरवान्वित महसूस करता है तो देश उसके त्याग को भला कैसे नकारेगा ? अगर चीन से भारत की सैर पर आये चाऊ एन लाई हमारे भाखड़ा नंगल बाँध को देखकर दंग रह जाते हैं तो इस उपलब्धि से नेहरू को कैसे अलग किया जा सकता है ? सन् 1962 में चीन से हुई हमारी पराजय नेहरू की पराजय कम, सनातन मूल्यों का पराभव अधिक था । राष्ट्र के निर्माण के शुरुआती डेढ़ दशक नेहरू की दृष्टि, रचनात्मकता और अस्मिताबोध की ही देन थे ।
सर्वविदित है कि अन्तिम समय में नेहरू के पास अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि रॉबर्ट फ्रॉस्ट की चार पंक्तियाँ पायी गयी थीं :
” The woods are lovely, dark and deep,
But I have promises to keep.
And miles to go before I sleep;
And miles to go before I sleep.”
    क्या अथक् और लम्बी यात्राओं के लिए कटिबद्ध, डरावनी चुनौतियों के बावजूद  अविचलित रहने वाले, एक बिखरी व्यवस्था को कल्पनापूर्वक सहेजने की चेष्टाओं के बीच सदैव अकम्पित और अडिग, लता के गायन “ऐ मेरे वतन के लोगो! ज़रा आँख में भर लो पानी” सुनकर हज़ारों की भीड़ में फूट-फूटकर रोने वाले नेहरू आज की भोथरी मानसिकता और शर्मनाक संकीर्णताओं के चलते सचमुच ही भुला देने योग्य हैं ?
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