कविता कहतीं पत्थर तराशकर गढ़ी गईं मूर्तियां

ग्वालियर की पहचान बनती कला कृतियां
@राकेश अचल
मनुष्य अपने एक जीवन में जितने अधिक से अधिक काम करे उतना बेहतर है. श्री सुभाष अरोरा ऐसे ही व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने जीवन में घाट-घाट का पानी पिया है. वे दस साल दुनिया के गरीब मुल्क में स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े रहे,स्वदेश लौटे तो मध्यप्रदेश में जनसम्पर्क अधिकारी बन गए और जब सेवा निवृत्त हुए तो मूर्ति शिल्प को अपना शौक बना लिया .अरोरा जी कोई सात साल पहले सेवानिवृत्त हुए तब उन्हें भी पता नहीं था की वे क्या करेंगे ,लेकिन जब उन्होंने मूर्तिकला को अपनाया तो एक बालसुलभ जिज्ञासा के साथ उन्होंने प्रशिक्षण हासिल किया और देखते ही देखते वे मूर्ति शिल्प के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए .
अगले महीने जीवन के ६८ वे पड़ाव पर दस्तक देने वाले सुभाष अरोरा ने पत्थर के साथ ही सीमेंट को भी अपना माध्यम बनाया,तमाम काठ-कबाड़ उनके इस शौक में काम आ गया .आज उनके पास अपनी कलाकृतियों का समृद्ध भण्डार है .आप यकीन करेंगे की अरोरा ने अपना एक फ़्लैट केवल मूर्तिकला के वर्कशाप के रूप में घेर रखा है .मिलनसार लेकिन अंतर्मुखी सुभाष अरोरा कवि हृदय भी हैं इसलिए उनकी मूर्तियों में कविता भी झांकती है .अब तक अनेक साझा प्रदर्शनियों का हिस्सा बन चुके अरोरा जी अपना मूर्ति संग्रह ग्वालियर को समर्पित करना चाहते हैं लेकिन अभी तक काठ-कबाड़ से मूर्तियां बनवाने में करोड़ों रुपया बर्बाद करने वाली संस्थाओं के अलावा किसी दूसरी संस्था ने भी उनके कलाकर्म को अपनाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई .

मै समझता हूँ कि अरोरा का मूर्ति शिल्प चंडीगढ़ के रॉकगार्डन की तरह ग्वालियर में भी एक मुकाम बना सकता है. ग्वालियर का कलेक्टर कार्यालय एक सुंदर पहाड़ी पर है ,वहां इन कृतियों को स्थापित किया जा सकता है .फूलबाग,के अलावा विश्व विद्यालय भी इन कलाकृतियों को अपना बना सकते हैं.

जीवाजी विश्व विद्यालय के मल्टी आर्ट सेंटर के बाहर इन कृतियों से शानदार कलाबाग विकसित किया जा सकता है ,लेकिन इसके लिए इच्छाशक्ति की आवश्यकता है जो शायद अभी हमारे भाग्यविधाताओं के पास नहीं है .मुझे उम्मीद है कि एक न एक दिन सुभाष अरोरा का कलाकर्म ग्वालियर की पहचान अवश्य बनेगा .